शिकायतें तो ख़ूब लिखी थी उन पन्नों पर |
कुछ दर्द के शब्द छापे थे स्याही से ||
ग़र फुरसत मिले रूठने के रिवाज़ों से |
तो आइयेगा पढ़ने उस किताब को ||
जो पत्तियां रख, पन्ने मोड़ तुमने निशान बनाये थे |
वो आज भी वहीँ हैं, वो आज भी सही हैं ||
ग़र फुर्सत मिले नफरत के झोंको से |
तो आइयेगा वो किताब जला दीपक बनाने को ||
तुम शायद वो तुम नहीं, मैं शायद मैं वो नहीं
पर उस किताब के हर पन्ने को राख बनाना चाहता हूँ
हाँ, मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ।।
~ श्री राम
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